Wednesday 12 September 2018

अल्मोड़ा का नंदा देवी मेला ( फाम )


मां नन्दा को हिमालय की पु़त्री माना गया है। इन्हे पार्वती का ही रूप माना जाता है ।  सुनन्दा को नंदा की ही बहन कहा जाता हैं। इसलिये नंदा और सुनंदा को एक साथ पूजा जाता है। नंदा देवी उत्तराखण्ड के कुमाऊँ और गढ़वाल दोनों अंचलों मे पूजी जाती है। इन्ही के सम्मान में प्रत्येक वर्ष उत्तराखण्ड के अनेक स्थानों पर मां नन्दा देवी का मेला आयोजित किया जाता है। उन्ही में से एक स्थान है अल्मोंड़ा।

             आधुनिकता की दौड़ में अब भी अल्मोड़ा अपनी एतिहासिकता और संस्कृति को संजोय हुये है। फिर चाहे होली हो, दशहरा हो या नंदा देवी मेला। यहां भी नंदा देवी मेला एक हफ्ते तक जोर शोर से उल्लास के साथ मनाया जाता है। इन एक हफ्ते में मेला भव्य रूप लिये रहता हैं। मां नंदा सुनंदा की मूर्ति निर्माण हेतु कदली वृक्ष लाकर उसकी पूजा से मेला शुरू होता है। भक्ति में डूबा रहता है पूरा वातावरण। मेले का मुख्य आकर्षण मेले के दौरान यहां का लोक कला है। लोक यहां की आत्मा में बसा हुआ है। विभिन्न प्रांतो से आये लोक कलाकार जिस तरह से अपनी कला की खुश्बू बिखेरते है वो देखने लायक होता है। छोलिया नृतक, मशकबीन, ढोल दमाऊ वादक आदि जिसे देखने भारी संख्या में लोग चाहे शहर के हो या गांव के हो, आते है। मेले की एक मुख्य खासियत यह होती है कि यह शहर और गांव का मेल भी कराता है। यहां हफ्ते भर तक दिन और रात में  रोज कार्यक्रम होते है। कार्यक्रम में लोक कलाकारों के अतिरिक्त स्कूली बच्चों , नाट्य ग्रुपों , आदि भी सम्मिलित होते है। पहाडी गीत संगीत , डांस की बयार मन में अलग ही उत्साह पैदा करती है।


लोक कार्यक्रमों के अलावा यहां का आर्कषण यहां मंनोरंजन के लिये लगे साधन भी है। जिनमें लोगो के खासकर बच्चों, युवा और महिलाओं का मुख्य झूला है। बड़े झूले के लिये लोगों का क्रेज हमेशा की तरह ज्यादा रहता है। झूले में एक बड़ा झूला , एक उससे छोटा, एक छोटे बच्चो के लिये लगता है। झुले के साथ साथ बंदूको से गुब्बारे फोड़ने का खेल भी रहता है। पहले छल्लों को किसी एक चीज में डालने का भी एक खेल लगता था, सामने कुछ चीज़ें जैसे कि साबुन,बिस्कुट का पैकेट, ग्लास, कटोरे , चॉकलेट आदि रखी रहती थी एजिस चीज में वो छल्ला डालों वो हमें इनाम में मिलती थी। आजकल बच्चो के लिये और भी खेल लगने लग गये है। इनके अतिरिक्त खाने के स्टॉल भी लगते थे। आजकल तो टिकिया, मोमो, चाउमीन आदि मिलते है। पर पहले की बात करे तो आलू, रायता आदि भी मिलते थे जो अब कम ही देखने को मिलते है। हां जलेबियों का क्रेज पहले भी बहुत था अल्मोड़ा के नंदा देवी मेले के समय और अब भी बहुत है।

               मेले के दौरान यहां लगने वाली दुकानें भी आकर्षित करती है। रोजगार के लिये  आये लोग बाजार बाजार खड़े होकर सामान बेचते है। जिनमें बच्चों के खिलौने प्रमुख होते है। जैसे बांसुरी, धनुष बाण, पीप पीप करने वाले बाजे, डमरू, मुखौटे, खिलौने वाले कैमरे, दूरबीन, गुड़िया, और भी बहुत सारे। बच्चे इन्ही की ओर आकर्षित रहते है। वही दूसरी ओर नंदा देवी मंदिर के प्रांगण में भी स्टॉल लगते हैं जिनमें खासकर महिलाओं की खरिददारी के लिये चूड़ियां, कंगन, झुमके अधिक बिकते है। और इसके अतिरिक्त चावल के दाने में नाम लिखाने वाले , मोहर की तरह मेंहदी लगाने वाले, हाथ में नाम गुदवाने वाले आदि स्टॉल लगे रहते हैं, जिनमें लोगो की भीड़ अधिक संख्या में रहती है।
            इन्हीं के बीच मेले का अंतिम दिन आता है जिस दिन मां नंदा और सुनंदा का डोला मंदिर से उठाया जाता है। और शहर के बीच से ले जाया जाता है जिसे पूरा शहर देखने आता है। मां की विदाई का यह दृश्य सभी को भावविभोर कर देता है।

         - वैभव जोशी  © ( उत्तराखण्ड मेरी जन्मभूमि)
            Website : www.umjb.in


          






Saturday 8 September 2018

“ जय गोलू देवता "


                         
“ (गोलू देवता की कहानी - https://umjb.in/lokkathaye/golu-devta--folk-story-of-goljyu )

जय गोलू देवता, जय जय तुम्हारी
मेरे इष्ट ,जय जय तुम्हारी।
, बालागोलिया,ओ दूधाधारी ,
मेरे इष्ट, जय जय तुम्हारी।

तुम्हारी शरण में आता जो,
खाली हाथ न जाता वो।
एक बार जो पुकारे नाम तुम्हारा ,
कृपा अपार है पाता वो।
नितदिन पूजें तुम्हेऐ कृष्णावतारी
मेरे इष्ट, जय जय तुम्हारी।

सुखी दुखी सब तुम्हारे पास आये ,
न्याय मांगे तुम से गुहार लगाये।
तुम से भी न दुःख देखा जाता ,
हर भक्त के दुःख दूर भगाए।
तुम ही हमारे न्यायधीशतुम न्यायकारी ,
मेरे इष्ट , जय जय तुम्हारी।

देश विदेश से भक्त हैं आते ,
कृपा तुम्हारी है सभी वे पाते।
अर्ज़ियाँ लगाते ,मिन्नतों की ,
घंटिया चढ़ातेतुम्हारे गुण गाते।
तुम्ही सब कुछतुम्ही पालनहारी ,
मेरे इष्ट ,जय जय तुम्हारी।

     रचनाकार  - वैभव जोशी (सर्वाधिकार सुरक्षित )
     उत्तराखण्ड मेरी जन्मभूमि